शनिवार, 6 मार्च 2010

ग़ज़ल


एक परिंदा उड़कर टूटा.

सबकुछ पाकर धीरज टूटा. 


यूं तो ये कमजोर नहीं था, 
तुमसे मिल मन धागा टूटा. 


शीश महल वो निकला झोंपड, 
अंधी आँख का सपना टूटा. 


कैसे-कैसे इल्ज़ाम दिए थे, 
कहाँ-कहाँ से ज़हर ये फूटा. 


दुश्मन होते अच्छा लगता, 
तुमने 'स्नेही' बनकर लूटा. 

6 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

nice thoughts..

kshama ने कहा…

Anek shubhkamnaon sahit swagat hai...

shama ने कहा…

Swagat hai..sundar rachana!

अजय कुमार ने कहा…

अच्छी रचना ,बधाई ।
हिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
कृपया अन्य ब्लॉगों को भी पढें और अपनी बहुमूल्य टिप्पणियां देनें का कष्ट करें

कृपया वर्ड-वेरिफिकेशन हटा लीजिये
वर्ड वेरीफिकेशन हटाने के लिए:
डैशबोर्ड>सेटिंग्स>कमेन्टस>Show word verification for comments?>
इसमें ’नो’ का विकल्प चुन लें..बस हो गया..कितना सरल है न हटाना
और उतना ही मुश्किल-इसे भरना!! यकीन मानिये

Yogesh Verma Swapn ने कहा…

bahut khoob, blog jagat men swagat hai.

Dr.Aditya Kumar ने कहा…

Excellent literary expression.Go ahead.

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