गुरुवार, 2 सितंबर 2010

बंटवारा

पहले धरती 
फिर आकाश 
अब ईश्वर भी 
सब यहाँ 
बंटा हुआ. 
हर सपना 
हर आशा 
हर सच 
सब बंटा हुआ. 
इन्सान
रिश्ते 
भाव 
सब बिखरे-बिखरे. 
मैं - तुम 
और यहाँ - वहाँ की 
जद्दोजहद में 
बंटने लगी है अब 
सूखे होंठों की प्यास 
आँखों की आस 
और 
मन का विश्वास 
अब तो 
तुमने 
मैंने 
मिलकर 
रोटी और पानी के लिए 
बाँट दिया 
रोटी और पानी को. 

गुरुवार, 29 जुलाई 2010

पिता


याद कर रहा हूँ मैं 
उस भारी-भरकम सी आवाज़ को 
जिसे सुन नहीं रहता था कोई संशय 
और कभी-कभी जिसने 
लगाया था अंकुश मेरी अति चंचलता पर. 
याद आई हैं मुझे 
वो मोटी, खुरदरी-सी ऊँगलियाँ 
अहसास था जिनमे 
पूर्णता का. 
उनकी एक छुअन से ही 
हमेशा मेरा डर 
होता रहा दूर. 
महसूस करता हूँ मैं 
उन भारी से क़दमों की आहट को 
जो चलते थे जब मेरे साथ 
तब मेरे लिए 
हो जाती थी समतल 
ऊबड़-खाबड़ जमीन. 
दिख रहीं हैं मुझे 
वो हल्का-सा पीलापन लिए 
वृद्ध हो चुकी आँखें 
जो दिखाती थीं, उस घने काले बदल के पीछे 
छुपी हुई है, एक चांदी की उजली किरण 
जब देखता हूँ इन चमकते 
आसमानी तारों को 
फीके लगते हैं मुझे 
क्योंकि, मोतियों से पूर्ण होने पर भी 
इस सीप में सदा छाया रहता है, सूनापन. 
इस विशाल सीप से 
नहीं निकल पाते कभी, नेह के मोती. 
सोचता हूँ 
वरदान में नचिकेता ने 
यों ही नहीं माँगा ये सब 
क्योंकि मुक्ति सुख का नाम है 
और इससे बड़ा सुख 
नहीं है किसी दुसरे लोक में. 
एक विशालता, और सारा सुख जगती का 
समाया रहता है, 
पिता के ह्रदय में.  
दैनिक हिन्दुस्तान में प्रकाशित 

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

निशा

उन्हें मित्र कहूं या अपनी वरिष्ठ सहपाठी...सहयोगी... कुछ समझ में नहीं आता.....शायद इस बारे में कभी सोचा नहीं...या फिर सोचने कि जरुरत ही नहीं पड़ी.....मुझसे बहुत बार कविताये सुनने कि ख्वाहिश जाहिर कि लेकिन यह कभी संयोगवश संभव नहीं हो पाया....मेरे ब्लॉग पर कविताये पढ़ी...और भी बहुत सारे ब्लॉग देखे...पढ़े....उसके मन में भी ब्लॉग बनाने कि इच्छा थी लेकिन पहाड़ जैसा प्रश्न सामने था....'क्या लिखूं'.
           आज अचानक ही उनका ब्लॉग देखता हूँ और चार पोस्ट आँखों के सामने छलक पड़ती हैं...
        क्या कुछ लिखा है.. अच्छा है या नहीं....आप खुद देखें और इस 'छोटी सी बच्ची'  (शायद ये शब्द उपयुक्त है) को देखें कि वह कितनी बड़ी हो गई है....
www.shyamanisha.blogspot.com


मंगलवार, 13 अप्रैल 2010

फैशन शो

कल शाम टीवी पर 
फैशन शो देख लिया उसने 
तब से मेरी बच्ची 
चलने वाले 
खिलौने मांगती है. 

सोमवार, 22 मार्च 2010

माँ

            "अचानक गिरने से इनके दिमाग के अंदरूनी हिस्से पर चोट आई है, सो, इन्हें न कुछ सुन सकता है, न ये बोल सकती हैं और न ही कुछ सोच सकती हैं. हम काफी कोशिश कर चुके हैं, अट्ठानवे वर्ष की उम्र में इनका ओपरेशन भी नहीं किया जा सकता. मेरी मानिये, आप इन्हें घर ले जाइये. हमसे जितना हो सका वो हमने किया, इसके आगे हम कुछ नहीं कर सकते. वैसे भी दो दिन से ज्यादा हम इनके रहने की उम्मीद नहीं कर सकते."
             डॉक्टर की कही ये सीधी-सी बात छेदीलाल को नस्तर की तरह चुभी. थोडा गुस्सा आया लेकिन उसमे भी लाचारी थी. अस्पताल के बिस्तर पर लेती माँ को एकटक देखता रहा. छेदीलाल को वह दिन याद आया, जिसे वह होश सम्भालने के बाद का पहला दिन कह सकता था. उसे याद नहीं की वह तब चलना सीखा भी था या नहीं, उसे बोलना आता भी था या नहीं. पर कुछ धुंधली-सी तस्वीरे उसके मन में थी. मिट्टी में लोट-पोत हुआ वह खेल रहा था की माँ आई और धीरे-से चपत लगते हुए बोली - "क्या भूतों जैसी शक्ल बना रखी है, अबकी बार गया तो मारूंगी." तब छेदीलाल रोने लगा था. माँ ने पुचकारते हुए फिर कहा - "अरे, रे, किसने मारा मेरे छुदु को?" उस समय रोते-रोते छेदीलाल को गुस्सा आया था. बड़े जोर-जोर से कहना चाहता था की पहले मरती हो फिर पूछती हो की किसने मारा! जैसे मैं कुछ जनता ही नहीं, बच्चा नहीं हूँ मैं. 
             पर वह कुछ कह नहीं पाया था. शायद वह बोलना नहीं जानता था या शायद वह रोते-रोते बोल नहीं सकता था.  माँ ने फिर क्या किया, उसे गोदी में लिया था या दोबारा मिट्टी में खेलने के लिए छोड़ दिया था, वह चुप भी हुआ था या नहीं. याद करने के लिए उसने दिमाग पर जोर डाला लेकिन कुछ याद नहीं आया. बहन के साथ खेलना-कूदना, बहन की शादी, अपनी शादी, छोटे भाई की शादी, पिताजी का स्वर्गवास, बच्चों का बड़ा होना, सब कुछ याद आ रहा था. बस याद नहीं आया तो वो दिन, क्या हुआ था तब? उसे अपनी याददास्त पर गुस्सा आने लगा था. गुस्से में सर को झटका दिया. आँख से आंसू की बूँद नाक पर धुलक आई. उसे अपने भीतर कुछ भरी-सा होता अनुभव हुआ. आँखे पोंछकर धीरे-से अपना स्टूल माँ के सिरहाने की ओर सरकाया. बिस्तर पर कोहनियाँ रखकर अपना चेहरा हाथों पर टिकाकर बैठ गया. 
             अब उसे डॉक्टर की बात याद आई. सोचने लगा, 'कहाँ का डॉक्टर है, दुनिया को पागल बनाये रक्खा है. भला ऐसा भी कभी हो सकता है की डॉक्टर कुछ न कर पाए, इतन बड़ा अस्पताल है, सैंकड़ों मशीने हैं, हजारों दवाएं हैं, आखिर क्या नहीं हो सकता? अबर मैं डॉक्टर होता तो किसी को भी नहीं मरने देता, पिताजी भी जिन्दा होते. सब मेरी गलती है. भला क्लर्क की जिंदगी भी कोई जिंदगी है, दिन भर कागज़ काले करते रहो, डॉक्टर होता तो किसी को भी मरने नहीं देता, सब मेरी गलती है, मुझे डॉक्टर बनना चाहिए था.   
              छेदीलाल जाने कहाँ-कहाँ की सोच रहा था, उसके मन में नए-नये सपनो के महल बन रहे थे, लेकिन ईद कसक थी मन में की सब कुछ हो जाने पर भी सब कुछ व्यर्थ है- यह सोच-विचार, ये पैसा, डॉक्टर की नौकरी, क्लर्क के कागज़, ये सपने......ये जीवन......सब व्यर्थ.
              माँ के चेहरे पर एक-दो मक्खियाँ चक्कर काट रही थीं. एक-दो बार हाथ से हटाया फिर घर से ली हुई एक पतली-ले ओढ़नी से माँ का चेहरा ढक दिया. फिर से वाही उधेड़-बुन शुरू हो गई. जाने क्या-क्या बुना, गढा, बीच-बीच में ओढ़नी हटाकर देखता और ओढ़नी को वैसे ही रख देता. उसे लगा की माँ चेहरा दो-चार दिनों में ही बिलकुल बदल चूका है. पहले जैसा नहीं रहा. 'पहले कैसा होता था माँ का चेहरा?' वह याद करने लगा.
             अचानक पीछे से किसी ने उसके कंधे पर हाथ रखा. पीछे देखा तो शांता खड़ी थी, उसकी बहन. बिस्तर पर बैठते हुए बोली - "डॉक्टर ने छुट्टी लेने को कहा है, यहाँ रहने का कोई फायदा नहीं. डॉक्टर ने कहा की माँ ज्यादा से ज्यादा अब दो दिन ही.....", कहते-कहते शांता रुक गई. छेदीलाल के मुंह से केवल 'हूँ' निकला, इसके अलावा उसके चेहरे पर न कोई भाव आया न गया. शांता चुप्पी  तोड़ते हुए बोली- "छोटे ने छुट्टी ले ली है, कोई गाड़ी देखने गया है, चलने की तयारी कर लो.....मैं ये कम्बल समेटती हूँ." जब तक छोटे आया तब तक शांता सामान समेत चुकी थी. छोटे को सामान पकड़ा कर नर्स और छेदीलाल की मदद से माँ को स्ट्रेचर पर लिटाया और गाड़ी तक लाये. छेदीलाल ने माँ को गाड़ी में लिटाने के बाद उनका सर अपनी गोद में टिका लिया और रस्ते भर माँ के माथे और सिर पर हाथ फिरते रहे.
              घर पर काफी लोग इकट्ठा हो चुके थे, जिसको भी खबर मिली भगा चला आया. माँ को अन्दर ले जाया गया. छेदीलाल ने देखा कि घर के बहार पांच-छ: चारपाइयां दल रक्खी हैं. कोई पड़ोस से ही आया था तो कोई कहीं दूर से. छेदीलाल का मन उचट गया, अन्दर गया तो देखा माँ की चारपाई के चारों ओर औरतों का जमघट है. अन्दर भी न जाया गया. उसे ये सब अच्छा न लग रहा था. औरतों पर उसे बहुत गुस्सा आया, 'कितना शोर मचा रही हैं ये, चुपके से बैठ नहीं सकती. माँ सो रही है, नींद उचट सकती है, लेकिन इन्हें समझाए कौन!' सभी अपने-अपने अनुभव बताये जा रही थी - फलाने की सास को भी ऐसे ही हुआ था, वो आज भी जिन्दा है. धिम्काने कि मान ऐसे ही बीमार हुई थी लेकिन बच नहीं पाई.
              छेदीलाल का और अधिक यहाँ ठहरने का सहस नहीं हुआ, बहार आ गये. उनको देखकर वहां बैठे तीन-चार लोग जगह देने को खड़े हो गये. छेदीलाल एक जगह बैठ तो गये लेकिन लोगों कि यह दया और सहानुभूति उन्हें अच्छी नहीं लग रही थी. पास बैठे चाचा ने पूछा - "बेटा छेदी, तबियत कैसी है तेरी माँ की?"
            छेदीलाल - "अच्छी नहीं है."
            चाचा - "डॉक्टर ने क्या कहा?"
            छेदीलाल - "कहा कि अब कुछ नहीं हो सकता."
            चाचा - "क्या कुछ नहीं हो सकता?"
            छेदीलाल को चाचा का यह सब पूछना अखर रहा था. ये सब उसे फ़िज़ूल कि औपचारिकता लगी. गुस्से में आकर बोले - "मैं क्या जानूं क्या नहीं हो सकता, डॉक्टर से पूछो जाकर, मैं कोई डॉक्टर नहीं हूँ, डॉक्टर होता तो.........." आगे कुछ न बोल पाए, लम्बे-लम्बे कदम रखते हुए अन्दर चले गये. 
           दुसरे कमरे में जाकर बैठे ही थे कि शांता आ गई. बोली - "छेदी, माँ की हालत देखकर लगता नहीं कि वो ठीक होंगी. इस तरह कष्ट भोगने से तो अच्छा है कि भगवन उन्हें उठा ले......, तू कहे तो मंदिर जाकर प्रसाद चढ़ा आऊँ? छेदीलाल गुस्से में बोले - "जिसे जो करना है करे, मुझे कोई क्यों पूछता है? शांता चुपचाप चली गई. जाकर छोटे को मंदिर में प्रसाद चढाने के लिए भेज दिया और खुद चम्मच से माँ के मुंह में बूँद-बूँद गंगाजल डालने लगी. छेदीलाल व छोटे की पत्नियां सास के स्वर्गवासी गोने की इच्छा लेकर गायों को चारा डालने चली गईं.  
           थोड़ी देर बाद बूढी चची छेदीलाल के पास आई. धीरे-से पास बैठकर बोली - "बेटा मन छोटा करने से कुछ नहीं होगा, हम तो उस ऊपरवाले के हाथों के खिलोने हैं, जब मन में आया बना दिया जब मन में आया तोड़ दिया. अब तो भगवन से यही प्रार्थना करो कि उसे जितना जल्दी हो सके अपने पास बुला ले."
          चाची की बातें सुनकर छेदीलाल की आँखों में आंसूं आ गये, रुंधे गले से बोले - "कैसी बातें करती हो चाची? भला एक बेटा ऐसी चाहना करेगा कि उसकी माँ यह दुनिया ही छोड़ डे? बचपन में कभी खेलने जाता था तो माँ कहती थी कि दूर मत जाना. आज उसी माँ को कह दूं कि तू चली जा, अब तेरी जरुरत नहीं, तेरी साँसें पूरी हो चुकी हैं. उसके लिए यह घर ही स्वर्ग से बढ़कर है. मेरी माँ मेरे पास खुश है. तुम जाओ....छेदी उसे नहीं जाने देगा." छेदीलाल फूट-फूट कर रोने लगा. बचपन में एक बार रोने लगा था तो माँ ने कहा था - "ऐ, गन्दा, लड़का होके रोता है." लेकिन आज कोई उसे कहने वाला नहीं कि मत रो और कह भी दे तो शायद वह नहीं रुकता, आज वह रोना चाहता है.
            चाची उठने को हुई थी कि शांता भागती हुई आई. हडबडाते हुए बोली - "छेदी! ......जल्दी आ.....माँ को देख..!"
            छेदीलाल माँ के कमरे की ओर भागा. वहां खड़ी औरतें उसे धरती पर लिटा चुकी थीं. छेदी ने देखा माँ की साँसे ऐसे अटक रही थी मानो साँसों को कोई बदन से उधेड़ रहा हो. छेदीलाल ने माँ के सिर को अपनी गोद में रख लिया और बिलखने लगा.
           चाची बोली - "बेटा, प्रार्थना कर भगवन से, तेरी माँ सीधी स्वर्ग में जाये."
           वहां जो भी खड़ा था, सभी के होंठ कुछ न कुछ बुदबुदा रहे थे. लेकिन छेदीलाल के रुंधे गले से कुछ निकला तो केवल - "माँ"
          माँ की छाती मनो खुल गई हो. एक लम्बा सांस अन्दर गया और निकल गया.
२१ मार्च, १० को हिंदुस्तान दैनिक में प्रकाशित

बुधवार, 17 मार्च 2010

कलाकार चाहे किसी भी विधा से सम्बन्ध रखता हो, लेकिन हर कलाकार यह चाहत जरुर रखता है की अबकी बार कुछ नया हो. वो विचारों के समुद्र में बार-बार डुबकियां लगाता है ओर अनंत गहरे से न जाने कैसे-कैसे मोती निकल लाता है. १६ मार्च, बुधवार की शाम को एक ऐसे ही कलाकार से मिला. श्रीमान कुलप्रीत सिंह. दैवयोग से हुई इस छोटी सी मुलाकात में बहुत कुछ जाना. कुलप्रीत जी एब्स्ट्रेक्ट आर्ट के कलाकार हैं. साथ ही कविता भी करते हैं. इस समय गवर्नमेंट म्यूजियम एंड आर्ट गैलरी, चंडीगढ़ में अपनी कलाकृतियों की प्रदर्शनी लगाई हुई है जो २० मार्च तक चलेगी. मेरे लिए यह पहला मौका था जब मैं किसी चित्रकार के मुख से अपनी पेंटिंग्स के बारे में सुन रहा था.
                  सच में पेंटिंग्स सुंदर न होते हुए भी इतनी सुंदर हैं की उनके सामने खड़ा होकर बस देखते रहने का ही मन करता है.
                  मैंने पूछा - क्या आप इसी तरह के ही चित्र बनाते हैं?
                  जनाब ने किसे शायर के शब्दों में अपने शब्द सजाकर जो उत्तर दिया, सीधा मन में उतर गया. शायराना अंदाज़ में बोले -
                             "विन्ची, पिकासो, घोघ ने जो छोड़ा कुछ ना
                             तो इसमें मेरी खता क्या है!
                             इसके अलावा बनाया जो कुछ भी
                             लोग कहते हैं की ये देखा सा है."
                 कुलप्रीत जी कहते हैं - "मैं किसी पेंटिंग के लिए कोई पूर्वयोजना नहीं बनाता. जब भी कुछ बनाने बैठता हूँ, बस बनाता  हूँ, ये नहीं सोचता की बनेगा क्या. मेरी पेंटिंग्स में मेरे सपने समाये रहते हैं. सपनों में खुद को जिस रूप में देखा, वो रूप कागज़ या केनवास पर उतर आता है."
                जब हम सपने देखते हैं तो अवचेतन मन से स्थिति को अनुभव कर रहे होते हैं. उन्ही अनुभवों, भावनाओं को कुलप्रीत जी कागज़ पर उतर लाये हैं. उनके चित्रों में चेहरों पर भाव नहीं हैं लेकिन भंगिमाएं सभी भावों को व्यक्त कर देती हैं. वो कहते हैं की वो प्रकृति को उसके होने पर कमेन्ट देते हैं.
               उनकी कला की कुछ झलकियाँ आपके सामने हैं....

शनिवार, 13 मार्च 2010

झलकियाँ चंडीगढ़ की....





ग़ज़ल

अपनों के बीच बात कहना भी सजा मानते हैं लोग. 
खुद की परछाई को भी बेवफा मानते हैं लोग.


कहाँ तक नीचे झुकें आखिर झुकने वाले, 
मिटटी से जुड़ों को गिरा हुआ मानते हैं लोग. 


कितना ही जलाओ घर, आँगन और शरीर 
यहाँ बस दिल के जलों को जला हुआ मानते हैं लोग. 


दर-दर पे भटकने वालों की नज़रें सब जानती हैं 
दुहाई, फ़रियाद का मतलब कब कहाँ जानते हैं लोग. 


पूछ लेना किसी से भी मेरे दूसरे घर का पता 
मेरे शहर में मुर्दों का भी ठौर पता जानते हैं लोग. 


जब बेशर्मी के लिए इनाम मिले तो याद करना 
एक जगह तो 'स्नेही' को भी बेहया मानते हैं लोग. 

शनिवार, 6 मार्च 2010

ग़ज़ल


एक परिंदा उड़कर टूटा.

सबकुछ पाकर धीरज टूटा. 


यूं तो ये कमजोर नहीं था, 
तुमसे मिल मन धागा टूटा. 


शीश महल वो निकला झोंपड, 
अंधी आँख का सपना टूटा. 


कैसे-कैसे इल्ज़ाम दिए थे, 
कहाँ-कहाँ से ज़हर ये फूटा. 


दुश्मन होते अच्छा लगता, 
तुमने 'स्नेही' बनकर लूटा. 

हिन्दी में लिखिए