अपनों के बीच बात कहना भी सजा मानते हैं लोग.
खुद की परछाई को भी बेवफा मानते हैं लोग.
कहाँ तक नीचे झुकें आखिर झुकने वाले,
मिटटी से जुड़ों को गिरा हुआ मानते हैं लोग.
कितना ही जलाओ घर, आँगन और शरीर
यहाँ बस दिल के जलों को जला हुआ मानते हैं लोग.
दर-दर पे भटकने वालों की नज़रें सब जानती हैं
दुहाई, फ़रियाद का मतलब कब कहाँ जानते हैं लोग.
पूछ लेना किसी से भी मेरे दूसरे घर का पता
मेरे शहर में मुर्दों का भी ठौर पता जानते हैं लोग.
जब बेशर्मी के लिए इनाम मिले तो याद करना
एक जगह तो 'स्नेही' को भी बेहया मानते हैं लोग.
खुद की परछाई को भी बेवफा मानते हैं लोग.
कहाँ तक नीचे झुकें आखिर झुकने वाले,
मिटटी से जुड़ों को गिरा हुआ मानते हैं लोग.
कितना ही जलाओ घर, आँगन और शरीर
यहाँ बस दिल के जलों को जला हुआ मानते हैं लोग.
दर-दर पे भटकने वालों की नज़रें सब जानती हैं
दुहाई, फ़रियाद का मतलब कब कहाँ जानते हैं लोग.
पूछ लेना किसी से भी मेरे दूसरे घर का पता
मेरे शहर में मुर्दों का भी ठौर पता जानते हैं लोग.
जब बेशर्मी के लिए इनाम मिले तो याद करना
एक जगह तो 'स्नेही' को भी बेहया मानते हैं लोग.
2 टिप्पणियां:
कितना ही जलाओ घर, आँगन और शरीर
यहाँ बस दिल के जलों को जला हुआ मानते हैं लोग. nice
अच्छी गजल , बधाई ।
मेरा ईमेल आई डी मेरे पोर्टफोलियो मे है ।
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